गुरुवार, 24 सितंबर 2009

पाँच महीने में अढाई कोस

जम्मू कश्मीर में पुराने सूचना के अधिकार कानून को बदलकर नए कानून को लागू हुए पांच महीने हो गए हैं लेकिन इस कानून के तहत सूचनाएं लेना लोगों के लिए अब भी टेढ़ी खीर बना हुआ है। राज्य में न तो लोगों को और न ही अधिकारियों को इस कानून की जानकारी है। जम्मू कश्मीर आरटीआई मूवमेंट के संयोजक डॉ. मुजफ्फर रजा भट्ट बताते हैं कि अधिकारी इस कानून के तहत आवेदन ही नहीं लेते, जो लेते हैं उन्हें ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। उनका कहना है कि हमने बीएसएनएल, जम्मू-कश्मीर प्रोजेक्ट कंस्ट्रक्शन कॉरपोरेशन (जेकेपीसीसी), डायरेक्टोरेट ऑफ स्टेट मोटर गैराज, सेटलमेंट कमीशन ऑफिस , चीफ कंजरवेटर ऑफ फोरेस्ट ऑफिस से जनहित में सूचनाएं लेनी चाही लेकिन वहां अब तो लोक सूचना अधिकारी ही नियुक्त नहीं किए गए हैं। जबकि कानून बनने के सौ दिन में अधिकारी नियुक्त हो जाने चाहिए। दूसरी तरफ राज्य सरकार ने भी इस कानून के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया है। कुछ चुनिंदा कार्यालयों में लोक सूचना अधिकारी तो नियुक्त हैं लेकिन वे सूचनाएं देने में तनिक भी गंभीर नहीं हैं। राज्य में जब कानून बना था तो राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को खूब वाहवाही मिली थी। अपने चुनावी घोषणा पत्रा में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सूचना के अधिकार की बात की थी। और सत्ता में आने के बाद उन्होंने पुराने कानून का बदलकर नया कानून लागू भी करवाया। बताया जा रहा था कि राज्य का यह कानून केन्द्रीय आरटीआई कानून से भी अधिक प्रभावशाली है। जम्मू-कश्मीर के आरटीआई एक्ट में पहली बार किसी राज्य सूचना आयोग के लिए अपीलों और शिकायतों के निपटारे के लिए समय सीमा तय की गई। इन तमाम बातों के होते हुए भी कानून में कई खामियां रह गईं जिन्हें दूर करने की कोशिश नहीं की गई। स्थिति यह है कि राज्य में अब तक आयोग के लिए सूचना आयुक्तों का चयन भी नहीं हो पाया है और यह मामला अभी आधार में ही लटका हुआ है। कानून में कुछ ऐसे प्रावधन भी हैं जो इसे आम और गरीब आदमी की पहुंच से दूर करते हैं। मसलन, आरटीआई आवेदन शुल्क के रूप में 50 रुपये और सूचना लेने के लिए 10 प्रति पेज निर्धारित किया गया है। जबकि केन्द्रीय कानून में यह शुल्क क्रमश: 10 रुपये और 2 रुपये है। बीपीएल कार्डधरकों के लिए भी नि:शुल्क सूचना का कोई प्रावधान नहीं है। दस्तावेजों के निरीक्षण के लिए भी शुल्क निर्धरित किया गया है। ऐसे में आरटीआई कार्यकर्ताओं को सरकार की पारदर्शिता और जवाबदेयता के कथनों पर संदेश होने लगा है।
अपना पन्ना में प्रकाशित

निर्मल होता निर्मल गुजरात अभियान

निर्मल गुजरात अभियान के तहत गुजरात में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए लगभग मुफ्त शौचालय बनाने की एक योजना है। लेकिन जमीनी स्तर तक आते-आते इस योजना की हवा निकाल दी गई है। फिलहाल, सूचना के अधिकार कानून के इस्तेमाल से कुछ जिलों में एक बार फ़िर यह योजना पटरी पर आ चुकी है। दरअसल, गुजरात के पंचमहल और कलोल के कुछ लोगों ने नागरिक अधिकार केंद्र नाम की एक गैर सरकारी संस्था से संपर्क कर बताया कि इन लोगों के घरों में इस अभियान के तहत शौचालय का निर्माण नहीं किया गया है, साथ ही ठेकेदार ने इन लोगों से अधिक पैसे भी वसूल लिए हैं। इस योजना के तहत लाभान्वितों को भी अपनी तरफ से एक निश्चित रकम (900 रूपये) देनी होती है। लोगों की इस शिकायत पर संस्था ने सूचना कानून के तहत कलोल नगरपालिका से इस अभियान (शौचालय निर्माण) के संबंध में सवाल पूछे। मसलन, ठेकेदार, अधिकारियों, लाभान्वितों के नाम, ठेका मिली कंपनी को जारी की गई एनओसी इत्यादि के बारे में पूछा गया। लेकिन प्रथम अपील के बाद भी सूचना नहीं मिली। राज्य सूचना आयोग में भी पिछले 14 महीनों से इस मामले पर कोई सुनवाई नहीं हुई।इसके बाद संस्था ने एक और आरटीआई आवेदन नगरपालिका वित्त बोर्ड में डाला और यही सब सवाल पूछे। प्रथम अपील के बाद संस्था को वांछित सूचनाएं मिल गईं। गुजरात सरकार ने मानव सेवा खादी ग्रामोद्योग विकास संघ को इस अभियान के कार्यान्वयन के लिए नोडल एजेंसी नियुक्त किया था। और इस संस्था ने कस्तूरबा महिला सहायक गृह उद्योग सहकारी संघ लि को इस अभियान के लिए ठेका दे दिया था। इतनी जानकारी मिलने के बाद संस्था ने घर-घर जा कर इस योजना की जमीनी हकीकत की जांच पड़ताल शुरु की। रिकॉर्ड के मुताबिक कलोल में 2008-09 के दौरान 150 शौचालय का निर्माण किया जाना था। बकायदा कलोल नगरपालिका के मुख्य अधिकारी ने 111 शौचालय निर्माण के लिए कांट्रेक्टर को भुगतान करने के लिए एनओसी भी जारी कर दी थी। लेकिन संस्था द्वारा की गई जांच से पता चला कि एक भी ऐसा घर नहीं मिला जहां शौचालय निर्माण का कार्य पूरा हो चुका हो। कई जगहों पर तो काम शुरु भी नहीं हो सका था। किसी भी शौचालय को सीवर से नहीं जोड़ा गया था। कुछ लोगों के अधूरे बने शौचालय को यह कह कर ध्वस्त कर दिया गया था कि इसे फ़िर से बनाया जाएगा। कई लोगों से शौचालय निर्माण के नाम पर ज्यादा रकम भी वसूली गई थी। इतनी सूचना एकत्र कर संस्था ने एक रिपोर्ट बनाई और इसे जिलाधाकारी के पास जमा कराया। जिलाधिकारी ने उप जिलाधिकारी को इसकी जांच करने को कहा। उप जिलाधिकारी ने भी संस्था की रिपोर्ट को ही सही ठहाराया। इसके बाद जिलाधिकारी के मासिक बैठक में, जहां नगरपालिका के मुख्य अधिकारी भी उपस्थित थे, जिलाधिकारी ने मुख्य विकास अधिकारी को फटकार लगाई और नौकरी से निकालने और जेल भेजने की चेतावनी दी। साथ ही जिले में सभी जगहों पर इस अभियान के तहत सही ढंग से शौचालय निर्माण करवाने का आदेश दिया। सूचना कानून का ही असर है कि ठेकेदार को फ़िर से सभी शौचालयों का निर्माण कराना पड़ा है। सीवर से भी इन शौचालयों को जोड़ा जा रहा है। जिन लोगों से अधिक पैसे लिए गए थे, उनके पैसे लौटाए गए।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

आईए! सूचना के बाद अब स्वराज मांगे

सूचना के अधिकार ने शासकों और शासितों का रिश्ता बदल दिया है....... बिहार के झंझारपुर गांव का अनपढ़ रिक्शा चालाक मज़लूम जिसने इंदिरा आवास योजना के पैसे के बदले रिश्वतखोर बीडीओ को यह कहकर चौंका दिया कि वह सोचना की अर्जी लगा देगा (उसे सूचना का का अधिकार कहना भी नहीं आता),......... या बुंदेलखंड की वे अनपढ़ मांएं जिन्होंने अपने बच्चों को मिलने वाली स्कूल वर्दी और किताबों का हिसाब मांगकर भ्रष्ट अफसरों को पूरे चित्रकूट ज़िले के प्राईमरी स्कूलों में वर्दी और किताबें बांटने को मजबूर किया और सवा दो करोड़ रुपए की चोरी रोकी ......... या फिर बहराईच ज़िले के कतार्नियाघट जंगलों में अपने वजूद का सरकारी सबूत ढूंढ रहे वनग्रामवासी, जिनके सवालों ने सरकार को मजबूर किया कि वह खुद उनके वहां होने के सबूत तैयार करे.... आज दूर दराज़ के आदिवासी इलाकों में बैठा एक अनपढ़ ग्रामीण भी शासकों से न सिर्फ सवाल पूछ रहा है बल्कि जवाब न देने की स्थिति में उन्हें दंडित करवाने के कदम भी उठा रहा है। शायद इसीलिए यह कानून लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में अभी तक किए गए प्रयासों में सबसे अधिक लोकिप्रय भी बन गया है. आज ऐसे सैकड़ों नहीं हज़ारों मामले हैं जहां इस कानून ने शासन प्रक्रिया में आम आदमी की हैसियत बढ़ाई है. लेकिन पिछले कई वर्षों के अनुभव से यह भी सामने आया है कि इस कानून की सीमा है. अगर ठीक से लागू हो सके तो यह व्यवस्था को पारदर्शी तो बना सकता है लेकिन जवाबदेह नहीं. इसे एक बड़े ही सटीक उदाहरण से समझा सकता है - सूचना अधिकार के लिए मेगसेसे से सम्मानित अरविंद केजरीवाल गाज़ियाबाद के कौशाम्बी इलाके में रहते हैं. अपने मोहल्ले की टूटी फूटी सड़कों के बारे में उन्होंने सूचना मांगी कि इन्हें कब और कितने पैसे में बनाया गया था। सूचना दी गई कि चार महीने पहले ही इन पर 42 लाख रुपए खर्च कर बनाया गया था. यह सूचना एकदम झूंठ थी क्योंकि वे सड़कें पिछले दस साल से बनी ही नहीं थीं. यह जनता के 42 लाख रुपए के सीधे सीधे गबन का मामला है लेकिन वे पुलिस में गए तो उसने हाथ खड़े कर दिए. डीएम से लेकर सीएम तक को लिखा लेकिन कोई नतीज़ा नहीं. यहां सूचना के अधिकार ने तो अपना काम कर दिया लेकिन हमारी शासन व्यवस्था ही ऐसी है कि इसमें आम आदमी कुछ कर ही नहीं सकता. लोकतंत्र के नाम पर हमारे पास महज़ एक अधिकार है, पांच साल में अपना वोट देने का. व्यवस्था से शिकायत हो तो हम ज्यादा पांच साल में अपना वोट सरकार बदलने के लिए दे सकते हैं. और साठ साल से लोग यही करते आए हैं. केन्द्र और राज्यों को मिलाकर देखें तो हमने हर पार्टी और नेता को सत्ता में बिठाकर देख लिया है. व्यवस्था के सामने आम आदमी की हैसियत वहीं की वहीं है. सिर्फ सूचना का अधिकार कानून एक ऐसा कानून रहा है जिसने आम आदमी को व्यवस्था से सवाल पूछने की ताकत दी है. सूचना कानून के तहत प्राप्त सूचनाओं से, देश भर में ऐसे मामलों का खुलासा हुआ है जहां सड़कें, हैंडपंप इत्यादि कागजों पर ही बना दिए गए. इसके आगे लोग शिकायत करते हैं तो कोई कार्रवाई नहीं होती. अब ज़रूरत इस बात की है कि हम इससे आगे के कदम की बात करें.
लेकिन आगे का कदम होगा क्या? हज़ारों लोग हैं जिन्होंने ऊपर के उदाहरण की तरह सूचना निकलवा कर भ्रष्टाचार उजागर किया है। लेकिन इसके बाद क्या?
अब यह व्यवस्था चाहिए कि सरकारी अमला लोगों के सीधे नियंत्रण में हो. किसी इलाके के सरकारी कर्मचारी, उनका काम, विभागों का पैसा, योजनाओं का लाभ ... सब कुछ जनता की खुली बैठकों में तय हो. वहां से जो बात निकले वही जनता का आदेश हो. नेताओं और सरकारी कर्मचारियों का काम महज़ उस पर अमल करना हो. और जो नेता या अधिकारी जनता के आदेश में न चले, उसे हटाने, दंडित करने की ताकत जनता के पास हो. यानि लोग खुद, कानूनी रूप से उन कामों को करवा सकें जिन्हें किए जाने की उम्मीद हम ऊपर के अफसरों और नेताओं से लगाए रहते हैं. अगर हम खुद को लोकतंत्र कहते हैं तो हमें लोगों को सबसे ऊपर लाना ही होगा. यही स्वराज होगा. तो आईए! सूचना के अधिकार के बाद अब स्वराज मांगें।